मैंने अक्सर लोगों को कहते सुना है कि
व्यक्ति का कमरा दर्शाता है उसके मानसिक स्वभाव को
जितना सुलझा कमरा, उतने सुलझे विचार
जितना बिखरा कमरा, उतने बिखरे विचार
वैसे, मैं अपने आप को बाद वाले लोगों की श्रेणी में पाता हूं!
अब जैसे हाल फिलहाल की ही बात देख लो –
लोग नए घर को बसाने के पहले ही सोच लेते हैं कि
टीवी यहां रखी जायेगी, अलमारी वहां,
टेबल इधर, कुर्सियां उधर,
चाय पीने की जगह बालकनी,
और प्यार – वो शायद दिल में ही ठीक है।
लेकिन मुझे देखो –
घर सोचना तो दूर की बात, यहां तो नए घर में आकर बस गया हूं, लेकिन ये पता नहीं कि
टीवी, अलमारी, टेबल, कुर्सियां, चाय की चुस्कियां,
ये सब कहां कैसे होंगे,
और प्यार, खैर वो तो एक बक्से में कैद ही ठीक है।
मगर ये दस्तावेजों का बक्सा –
ये कब ऐसे मेज़ पर खुल गया
पता ही नहीं चला।
हे भगवान सारी फाइल बिखरी हुई हैं,
और इनमें से कुछ तो ऐसी है जिन्हें मैंने कभी देखा ही नहीं।
क्या इन कामवालों ने मां-पापा के दस्तावेजों का बक्सा भी यहीं खोल दिया?
मां-पापा, वह तो खैर अब है नहीं
लेकिन यह सारे कागज़ात और दस्तावेज़,
इन्हें मैंने कभी क्यों नहीं देखा?
क्या ये भी बिल्कुल वैसे ही मां-पापा जैसे हो गए हैं, जो दिखते नहीं?
या शायद यह भी पिछले मकान में वैसे ही रखे हो
जैसे उनका प्यार रहता था –
छुपा हुआ।
अब उनके दस्तावेज तो यहां है,
मगर उनका प्यार?
वैसे अब यह भी यहां बिखर ही गए हैं
तो उन्हें देख ही लिया जाए कि ये हैं क्या।
कुछ पुराने मकान के नक्शे,
लेन-देन के कागज़,
शादी की पत्रिकाएं,
फोन नंबरों की सूची,
और इन सब बिखरे हुई फाइलों के नीचे – एक मार्कशीट।
कक्षा दो की? मेरी मार्कशीट?
यह यहां कैसे?
जहां तक मुझे याद है
मेरे बचपन की यादें भी
मेरे बाकी विचारों और इस कमरे की तरह
बिखरी ही हैं –
कभी कुछ ज़्यादा याद नहीं रहा
कि कब, कहां, क्या हुआ
और जो याद रहा
वह भी कुछ बिखरा बिखरा सा ही है –
जैसे कभी खिलौनो से न खेलना,
गर्मी की छुट्टियां नाना नानी के यहां बिताना,
कम दोस्त होना, कम बोलना
आगे क्या करना, ना करना,
कुछ सही से कर पाना, ना कर पाना
खुद के फैसले लेना, ना ले पाना,
सब बिखरा सा है, जिंदगी जैसे,
और हां,
एक बात और
कम अंक लाना –
मगर यह आखरी वाली बात मां-पापा ने मुझे बताई थी, मुझे तो सिर्फ बिखरी बिखरी याद है।
और जो थोड़ा कुछ याद रहा,
वो यह कि
कैसे इन कम अंकों के कारण डांट पड़ी,
दिन रात ज़्यादा मेहनत हुई,
बाहर न जाने दिया गया,
कौन सा विषय दसवीं के बाद लेना है,
आगे क्या करना है,
सब पहले से ही कह दिया गया।
ये कॉलेज जाओ, यहां जॉब करो,
ये करो, वो करो,
ऐसे रहो, इसे खाओ –
सब पहले से ही कह दिया गया।
तो अब जो बचा है, वह बस यादें है-
बिखरी हुई, उलझी हुई,
टेढ़ी मेढ़ी, टूटी हुई,
मगर झुठी, नहीं झुठी नहीं।
लेकिन अगर यादें झूठी नहीं
तो यह कक्षा दो की मार्कशीट पर अंक झूठे क्यों हैं?
मुझे जो कहा गया कि अंक बुरे हैं, वह यहां बुरे क्यों नहीं?
तो क्या जो प्यार कभी दिखाया नहीं गया, क्या वह प्यार नहीं दिखाना झूठा था?
मेरे इन बिखरे विचारों से मुझे बिखरने न देना,
क्या सख़्त बन कर, राहों को आसान बनाना, प्यार जताना था?
क्या प्यार बिना दिखाए – दिखाया जा सकता है?
क्या प्यार बिन जताए – जताया जा सकता है?
क्या बक्से में बंद प्यार – बक्से के बाहर आ सकता है?
© जयनंद गुर्जर
अगर आपको यह कविता पसंद आए, तो इसे औरों के साथ साझा करना न भूलें! एवं कमेंट्स करके आप अपनी समीक्षा, राय या पसंद आए तो उसके बारे में अवश्य बताइएगा। साथ ही, ब्लॉग को अब तक फॉलो नहीं किया हो, तो ज़रूर कीजियेगा। आभार।
यह भी पढ़ें:
This post is a part of Blogchatter Blog Hop for prompt: I was cleaning my clutter desk and found the document beneath the file of paper.
Very beautifully crafted poem with true emotions, Jainand. I wonder if emotions can be understood without expressing them.
LikeLike
What you said about cluttered rooms, I have the same theory for a cluttered desktop!
LikeLike